Thursday 8 November 2018

बाँदा स्मृति पुराण - 4





बाँदा स्मृति पुराण चौथी किस्त

मैं मार्क्स का रसोइया नहीं, मार्क्स की जगह खुद हूँ” – धूमिल

बाँदा सम्मेलन जिन दिनों हुआ उन दिनों हिंदी कविता में नए कवियों में धूमिल का एकक्षत्र राज्य था । उस समय के जो नए कवि आज महत्व के दिखाई पड़ते हैं उन दिनों उनका कोई खास योगदान अभी शुरू नहीं हुआ था । इधर-उधर लघु-पत्रिकाओं में रचनाएँ छपने लगी थीं इसलिए नए लोग सब परिचित थे । लेकिन धूमिल तो कविता में छाए हुए थे उनकी कविताएं, बेलाग शैलीगत विसंगति और विडंबनाओं की नाटकीयता लिए, नए मुहावरे और भाषा और उसके ऊपर उनका भारतीय संघर्षशील अस्मिता का प्रतीक दमदार निराला व्यक्तित्व ।

उस समय ऐसा कोई मंच नहीं था जहां धूमिल की कविता की धूम न हो और धूमिल के भाषण में फेंके जुमलों पर लोग दाद न दे रहे हों । वैसे भी धूमिल का व्यक्तित्व एकदम भदेस और न्यारा था और सबका ध्यान अपनी तरफ खींचता था । लेकिन बांदा सम्मेलन का मुख्य केंद्र क्योंकि संगठन के मुद्दे थे इसलिए उसमें रचनात्मकता की अधिक गुंजाइश नहीं थी । अधिकांश चर्चा सैद्धांतिक और नीरस से विषयों पर थी कि संगठन निर्माण के आधार क्या हों, कि संगठन में अलग दृष्टिकोण के लेखकों के बीच संयुक्त मोर्चा कैसे बनाया जाय ।

धूमिल पूरा समय बेचैनी से पंडाल में लंबे और ऊबाऊ भाषण सुनने को अभिशप्त थे ।

इसी से धूमिल कुपित हुए होंगे । एक तो कविता पर कोई चर्चा नहीं हो रही और उसपर धूमिल का कहीं कोई जिक्र नहीं !

हम लोगों ने इधर-उधर दो-चार लेख लिखे होंगे लेकिन विश्वविद्यालय से लगाकर ट्रेड यूनियन और पार्टी में गहन सक्रियता के चलते नाम कुछ ज्यादा फैल गया था । खासकर कर्ण और सुधीश की जोड़ी तो काफी ख्यात हो गई थी कि बाबा नागार्जुन ने तो मिलाकर नाम ही रख दिया था सुकर्ण पहानअर्थात सुधीश पचौरी और कर्ण सिंह चौहान ।

और जो भी हो लेकिन भाषण-कला खूब सध गई थी । मार्क्स-एंगल्स-लेनिन-माओ को इतना सब पढ़ डाला था कि हर स्थिति और उत्तर के लिए उनके उद्धरण जबान पर रहते ।

बाँदा के सम्मेलन में भी मंच पर कुछ यही हाल रहा होगा और लंबे भाषणों में मार्क्स-एंगल्स का जाप कुछ अधिक ही हुआ होगा । धूमिल इसी से तिलमिलाए हुए थे । उनके पास रचनात्मकता के लिए तो हमेशा ताजे फतवे या जुमले होते थे लेकिन इस गहन सैद्धांतिक चर्चा में क्या करें !

कि वे अचानक उठे और मंच पर जाकर लताड़ने वाले अंदाज में पहले तो साहित्यकार बने अध्यापकों पर बरसे, फिर विचारधारा पर बरसे और कह गए – 

क्या मार्क्स मार्क्स लगा रखा है ! मैं कोई मार्क्स का रसोइया नहीं हूँ, मैं मार्क्स की जगह खुद हूँ ।
और लगे मार्क्स के बरक्स अपनी मौलिकता स्थापित करने । इस आवेश में वे यह भी भूल गए कि सभी रंगत के प्रगतिशीलोंमें वे स्वयं को वामपंथियों से भी वाम मानकर चलते थे और अधिकांश स्वतंत्रचेता लेखकों की तरह उनकी निकटता भी मार्क्सवादी-लेनिनवादी लाइन की तरफ थी । ऐसे में मार्क्स की जगह खुद को रखना कोई बुद्धिमानी की बात नहीं थी । लेकिन धूमिल तो धूमिल थे ।

ये वो समय था जब न केवल दुनिया में मार्क्सवाद के व्यावहारिक प्रयोग की समाजवादी सत्ताएं अस्तित्वमान थीं, बल्कि उनका प्रभाव लगातार फैल रहा था । स्वयं हमारे देश में कम्युनिस्ट आंदोलन उभार पर था । ऐसे समय में इस कथन पर नए रंगरूटों की क्या प्रतिक्रिया हो सकती थी !
उनका न भाषण जमा, न जुमले जमे । बे एकदम उखड़ से गए । मंच से उतरे तो बहुत अकेला महसूस किया । युवा श्रोताओं के सख्त चेहरों के ठंडेपन से उन्हें यह तो पता चल ही गया कि साहित्य के मंच पर एकदम नई जमात का उदय हो चुका है जो किसी जुमले में यकीन नहीं करती । एक सूरज का अवसान हो रहा था और नए चमकते तारों का उदय ।

मंच से उनकी बातों का जोरदार तर्कसम्मत जवाब दिया गया जिसकी कोई काट उनके पास नहीं थी । उन्होंने लगभग हथियार डाल दिए ।

…..उसके बाद तो पूरे सम्मेलन और उसके बाद भी वे हर मुद्दे पर हमारे साथ मिलकर लड़े । यह एक अलग कहानी है जो अगली किसी स्मृति में आएगी ।



Tuesday 6 November 2018

बांदा स्मृति पुराण - 3




बांदा स्मृति पुराण - तीसरी किस्त



सभी रंगत के प्रगतिशील, माने क्या !

जिस तरह १९३६ में बने प्रगतिशील लेखक संघका सार तत्व और वैचारिक पक्ष लंदन में बनाए गए घोषणापत्र और लखनऊ सम्मेलन में पारित घोषणापत्र की लाइनों और उनके महीन अंतरों में या प्रेमचंद के भाषण में निहित था उसी तरह १९७३ और उसके बाद बने लेखक संगठनों का सार तत्व और वैचारिक पक्ष बांदा के इस प्रस्तावित निमंत्रण में निहित था ।
 
जिस तरह प्रलेस में आगे चलकर उठे मतभेद, विवाद, तकरार और विघटन सब के बीज प्रथम सम्मेलन की कार्यवाहियों में थे, उसी तरह बांदा सम्मेलन भी बाद के संगठनों के स्वरूप की कहानी कह रहा था ।

सम्मेलन को बुलाने के मकसद को फरवरी १९७३ के भारतीय साहित्यमें स्पष्ट करते हुए कवि केदार जी ने स्पष्ट किया कि – “ इस सम्मेलन के संयोजकों ने लगभग सभी विचारधाराओं के प्रगतिशील लेखकों को आमंत्रित किया है । उन्हें बुलाने का उद्देश्य यही रहा है कि वे सब सभी समस्याओं पर बातचीत करें । जहां तक लेखकों के संगठन में बंधने की बात है, वह भी बड़ी महत्वपूर्ण है । संगठित होकर ही हम सब लेखक लोग अपने को प्रभावशाली बना सकते हैं और संगठित होकर हम सब लेखक लोग एक सहकारी संस्था बना सकते हैं जहां से हमारी ही रचनाएं पुस्तकों के रूप में या पत्रिकाओं के रूप में प्रकाशित हों ।

यहां तक तो सब बहुत ही सहज, सरल और सीमित सा उद्देश्य दिखाई पड़ता था । इस पारदर्शी उद्देश्य में किसी को संदेह न हो इसके लिए पुनः रेखांकित किया गया

सम्मेलन में सम्मिलित होने वाले लेखकों से दलगत राजनीति से ऊपर उठकर रचनात्मक स्तर पर पारस्परिक विचार करने की बात कही गई है । इस कहने के पीछे न किसी का राजनीतिक निर्देश है, न किसी का कोई आदेश है । इस सबंध में किसी को कोई भ्रम नहीं होना चाहिए ।“ (वही)
एकदम सही अपील । 

लेकिन इसके बाद मामला दलगत होने लगा । सभी जानते हैं कि यह वह जमाना था जब कांग्रेस की सत्ता निरंकुशता की ओर बढ़ रही थी और उसके विरुद्ध तमाम राजनीतिक दल एकजुट हो रहे थे । सभी रंगत के प्रगतिशीलों में सी.पी. आई. को छोड़कर बाकी दो –- सी.पी.एम. और एम.एल. -- कांग्रेस को सामंतवाद के साथ गठजोड़ कर देशी ईजारेदारों और विदेशी साम्राज्यवादियों का हित साधन करने वाली पार्टी मानकर चल रहे थे । एम.एल. वाले तो आगे बढ़ उसे साम्राज्यवादी दलाल तक कह चुके थे । बंगाल में उसका अर्द्ध-फासिस्टी चरित्र पुख्ता होता जा रहा था । ऐसे में संयोजकीय वक्तव्य में यह कहना लेखकों की भ्रकुटी टेढ़ी करने के लिए काफी था

जहां तक शासन या सरकार से सहयोग या असहयोग करने की बात है, उस पर भी हम साहित्यकारों को विवेक से काम लेना चाहिए । अब कोई विदेशी शासन या (अधिनायकवादी) नहीं है कि हम उसका आंख मूंद कर विरोध करने के लिए कृत संकल्प हों । अब सरकार ने समाजवाद की ओर अपना मुंह कर लिया है ।“ (केदारनाथ अग्रवाल)

……’ सरकार ने समाजवाद की ओर अपना मुंह कर लिया है’ – गड़बड़ यहीं से शुरू हो गई ।
वक्तव्य और आगे बढ़ा

ऐसी दशा में साहित्यकार का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह सरकार द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों को जनता के जीवन परिप्रेक्ष्य में जांचे और एक नागरिक के नाते उसके इन कामों का प्रतिबिंबन अपने साहित्य में करे ।“(वही)

….’ सरकार के कामों का प्रतिबिंबन अपने साहित्य में करे

सभी रंगत के प्रगतिशीलोंमें जो अधिकांश लेखक सम्मेलन में आए थे वे केदार जी के प्रति आदर के बावजूद उनके माध्यम से प्रस्तुत हो रही इस समझ से सहमत नहीं थे ।

सभी जानते थे कि ये कवि केदार के विचार नहीं थे । उनकी रचना से मेल नहीं खाते थे ।

इसी से सम्मेलन तीखी बहस का जीवंत मंच बन गया । आगे देखेंगे कि क्या-क्या हुआ !

Thursday 1 November 2018

बाँदा स्मृति पुराण - 2


बांदा स्मृति पुराण - दूसरी किस्त

आज से ४५ साल पहले बांदा जाना हुआ । अवसर था केदार अग्रवाल द्वारा सब रंग के प्रगतिशीलों का एक व्यापक सम्मेलन । पांचवे दशक के अंत में प्रगतिशील लेखक संघ के अंत के बाद नई कविता-नई कहानी, अकविता-अकहानी, बीट, भूखी, युयुत्सु आदि पीढ़ियों से होकर जब सत्ता से मोहभंग के बाद जनवादी स्वर प्रबल होने लगे तो लेखक संगठन बनाने के प्रयास नए सिरे से शुरू हुए । इसमें पहल की केदारनाथ अग्रवाल ने जिन्होंने डॉ. रणजीत और स्थानीय सी.पी. आई. के सहयोग से बांदा में फरवरी, १९७३ में यह दो दिवसीय सम्मेलन बुलाया । उसमें उस समय के नए-पुराने महत्व के अधिकांश लेखकों ने भाग लिया । उद्घाटन महादेवी जी को करना था लेकिन उनके न आने पर किया अमृतराय जी ने ।

सम्मेलन में उपस्थित १०० के करीब लेखकों में से कुछेक नाम थे सज्जाद जहीर, शिवदान सिंह चौहान, मन्मथनाथ गुप्त, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन शास्त्री, विजेंद्र, भगवत शरण उपाध्याय, शिवकुमार मिश्र, खगेंद्र ठाकुर, सुरेंद्र चौधरी, धूमिल, राजेश जोशी, सव्यसाची, राजीव सक्सेना, रणजीत, चंद्रभूषण तिवारी, श्याम बिहारी राय, सनत कुमार, उदभ्रांत, आनंद प्रकाश, ललित मोहन अवस्थी, सुरेंद्रनाथ तिवारी, सुधीश पचौरी, कर्ण सिंह चौहान आदि ।


दो दिन तक चला यह सम्मेलन इस अर्थ में ऐतिहासिक था कि यह नई परिस्थितियों में लेखकों के मन में संगठन की अदम्य इच्छा को वाणी देने का सार्थक मंच बना जिसमें संगठन के आधारों पर गहन चर्चा हुई और तीखी बहस हुईं । इस सम्मेलन में ३३ लोगों की एक अखिल भारतीय संयोजन समिति बनाई गई । इस सम्मेलन की गतिविधियां और उसके बाद हुए स्थानीय सम्मेलन संगठन की बहसों में महत्वपूर्ण हैं । उसी सब को संचयित, संयोजित और संकलित करने को बांदा की यह यात्रा है । आगे जो होगा वह तो बाद में फिलहाल जो हो चुका वह यहां बांदा स्मृति पुराणमें धारावाहिक होगा ।

मंगलाचरण के तौर पर वे दो प्रसिद्ध कविताएं दी जा रही हैं जो केदार और नागार्जुन ने एक-दूसरे पर लिखी हैं । बांदा की किसी भी स्मृति में वे सबसे महत्व के दस्तावेज हैं । पहली किश्त में नागार्जुन की केदार पर लिखी कविता –“ ओ जन-मन के सजग चितेरे दी थी । आज केदार की कविता –“ नागार्जुन के बांदा आने पर दे रहे हैं । कल से स्मृति अध्याय शुरु होंगे ।










बाँदा स्मृति पुराण - 1


बांदा स्मृति पुराण - पहली किस्त



आज से ४५ साल पहले बांदा जाना हुआ । अवसर था केदार अग्रवाल द्वारा सब रंग के प्रगतिशीलों का एक व्यापक सम्मेलन । पांचवे दशक के अंत में प्रगतिशील लेखक संघ के अंत के बाद नई कविता-नई कहानी, अकविता-अकहानी, बीट, भूखी, युयुत्सु आदि पीढ़ियों से होकर जब सत्ता से मोहभंग के बाद जनवादी स्वर प्रबल होने लगे तो लेखक संगठन बनाने के प्रयास नए सिरे से शुरू हुए ।
 
इसमें पहल की केदारनाथ अग्रवाल ने जिन्होंने डॉ. रणजीत और स्थानीय सी.पी. आई. के सहयोग से बांदा में फरवरी, १९७३ में यह दो दिवसीय सम्मेलन बुलाया । उसमें उस समय के नए-पुराने महत्व के अधिकांश लेखकों ने भाग लिया । उद्घाटन महादेवी जी को करना था लेकिन उनके न आने पर किया अमृतराय जी ने ।

सम्मेलन में उपस्थित १०० के करीब लेखकों में से कुछेक नाम थे सज्जाद जहीर, शिवदान सिंह चौहान, मन्मथनाथ गुप्त, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन शास्त्री, विजेंद्र, भगवत शरण उपाध्याय, शिवकुमार मिश्र, खगेंद्र ठाकुर, सुरेंद्र चौधरी, धूमिल, राजेश जोशी, सव्यसाची, राजीव सक्सेना, रणजीत, चंद्रभूषण तिवारी, श्याम बिहारी राय, सनत कुमार, उदभ्रांत, आनंद प्रकाश, ललित मोहन अवस्थी, सुरेंद्रनाथ तिवारी, सुधीश पचौरी, कर्ण सिंह चौहान आदि ।

दो दिन तक चला यह सम्मेलन इस अर्थ में ऐतिहासिक था कि यह नई परिस्थितियों में लेखकों के मन में संगठन की अदम्य इच्छा को वाणी देने का सार्थक मंच बना जिसमें संगठन के आधारों पर गहन चर्चा हुई और तीखी बहस हुईं । इस सम्मेलन में ३३ लोगों की एक अखिल भारतीय संयोजन समिति बनाई गई । इस सम्मेलन की गतिविधियां और उसके बाद हुए स्थानीय सम्मेलन संगठन की बहसों में महत्वपूर्ण हैं । उसी सब को संचयित, संयोजित और संकलित करने को बांदा की यह यात्रा है ।
 
आगे जो होगा वह तो बाद में फिलहाल जो हो चुका वह यहां बांदा स्मृति पुराणमें धारावाहिक होगा ।

मंगलाचरण के तौर पर वे दो प्रसिद्ध कविताएं दी जा रही हैं जो केदार और नागार्जुन ने एक-दूसरे पर लिखी हैं । बांदा की किसी भी स्मृति में वे सबसे महत्व के दस्तावेज हैं । शुरूआत में नागार्जुन की केदार पर लिखी कविता –“ ओ जन-मन के सजग चितेरे दी जा रही है । कल केदार की कविता –“ नागार्जुन के बांदा आने पर देंगे ।