बांदा स्मृति पुराण - तीसरी किस्त
सभी रंगत के प्रगतिशील, माने क्या !
जिस तरह १९३६ में बने ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ का सार तत्व और वैचारिक पक्ष लंदन
में बनाए गए घोषणापत्र और लखनऊ सम्मेलन में पारित घोषणापत्र की लाइनों और उनके
महीन अंतरों में या प्रेमचंद के भाषण में निहित था उसी तरह १९७३ और उसके बाद बने
लेखक संगठनों का सार तत्व और वैचारिक पक्ष बांदा के इस प्रस्तावित निमंत्रण में
निहित था ।
जिस तरह प्रलेस में आगे चलकर उठे मतभेद, विवाद, तकरार और विघटन सब के बीज प्रथम सम्मेलन की
कार्यवाहियों में थे, उसी तरह बांदा सम्मेलन भी बाद के
संगठनों के स्वरूप की कहानी कह रहा था ।
सम्मेलन को बुलाने के मकसद को फरवरी १९७३ के ‘भारतीय साहित्य’ में स्पष्ट करते हुए कवि केदार जी
ने स्पष्ट किया कि – “ इस सम्मेलन के संयोजकों ने लगभग सभी
विचारधाराओं के प्रगतिशील लेखकों को आमंत्रित किया है । उन्हें बुलाने का उद्देश्य
यही रहा है कि वे सब सभी समस्याओं पर बातचीत करें । जहां तक लेखकों के संगठन में
बंधने की बात है, वह भी बड़ी महत्वपूर्ण है । …संगठित होकर ही हम सब लेखक लोग अपने को प्रभावशाली बना सकते हैं और संगठित
होकर हम सब लेखक लोग एक सहकारी संस्था बना सकते हैं जहां से हमारी ही रचनाएं
पुस्तकों के रूप में या पत्रिकाओं के रूप में प्रकाशित हों ।“
यहां तक तो सब बहुत ही सहज, सरल और सीमित सा उद्देश्य दिखाई पड़ता था । इस पारदर्शी उद्देश्य में किसी
को संदेह न हो इसके लिए पुनः रेखांकित किया गया –
“
सम्मेलन में सम्मिलित होने वाले लेखकों से दलगत राजनीति से ऊपर उठकर
रचनात्मक स्तर पर पारस्परिक विचार करने की बात कही गई है । इस कहने के पीछे न किसी
का राजनीतिक निर्देश है, न किसी का कोई आदेश है । इस सबंध
में किसी को कोई भ्रम नहीं होना चाहिए ।“ (वही)
एकदम सही अपील ।
लेकिन इसके बाद मामला दलगत होने लगा । सभी जानते
हैं कि यह वह जमाना था जब कांग्रेस की सत्ता निरंकुशता की ओर बढ़ रही थी और उसके
विरुद्ध तमाम राजनीतिक दल एकजुट हो रहे थे । “सभी रंगत के प्रगतिशीलों
“ में सी.पी. आई. को छोड़कर बाकी दो –- सी.पी.एम.
और एम.एल. -- कांग्रेस को सामंतवाद के साथ गठजोड़ कर देशी ईजारेदारों और विदेशी साम्राज्यवादियों
का हित साधन करने वाली पार्टी मानकर चल रहे थे । एम.एल. वाले तो आगे बढ़ उसे
साम्राज्यवादी दलाल तक कह चुके थे । बंगाल में उसका अर्द्ध-फासिस्टी चरित्र पुख्ता
होता जा रहा था । ऐसे में संयोजकीय वक्तव्य में यह कहना लेखकों की भ्रकुटी टेढ़ी
करने के लिए काफी था –
“जहां तक शासन या सरकार से सहयोग या असहयोग करने की बात है, उस पर भी हम साहित्यकारों को विवेक से काम लेना चाहिए । अब कोई विदेशी
शासन या (अधिनायकवादी) नहीं है कि हम उसका आंख मूंद कर विरोध
करने के लिए कृत संकल्प हों । अब सरकार ने समाजवाद की ओर अपना मुंह कर लिया है ।“
(केदारनाथ अग्रवाल)
……’
सरकार ने समाजवाद की ओर अपना मुंह कर लिया है’ – गड़बड़ यहीं से शुरू हो गई ।
वक्तव्य और आगे बढ़ा –
“
ऐसी दशा में साहित्यकार का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह सरकार
द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों को जनता के जीवन परिप्रेक्ष्य में जांचे और एक नागरिक
के नाते उसके इन कामों का प्रतिबिंबन अपने साहित्य में करे ।“(वही)
….’
सरकार के कामों का प्रतिबिंबन अपने साहित्य में करे’
‘सभी रंगत के प्रगतिशीलों’ में जो अधिकांश लेखक सम्मेलन
में आए थे वे केदार जी के प्रति आदर के बावजूद उनके माध्यम से प्रस्तुत हो रही इस
समझ से सहमत नहीं थे ।
सभी जानते थे कि ये कवि केदार के विचार नहीं थे
। उनकी रचना से मेल नहीं खाते थे ।
इसी से सम्मेलन तीखी बहस का जीवंत मंच बन गया ।
आगे देखेंगे कि क्या-क्या हुआ !
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